Sunday 15 January 2017

ये मतवाला संसार



जाने किस दर्द-दंश से
रोष दिखाता है समीर   
अंग-अंग को कम्पित करता
तन में पहुंचाता है पीर.
चौंक कर गिरते पीले पल्लव
कलियों को देता झकझोर
नीड़ के अन्दर उधम मचाता
विहग-बालिके करती शोर.
पशु ढूंढते छिपने का ठौर
कांपते जन जलाते अंगार
शिथिल चरण से बच्चे बैठे
करुण स्वर से रहे पुकार.
छलकी पलकों से कराहती
जिसका नहीं है घर संसार
तारों भरी नीरव रातों में
जब जीवन जाता है हार.
गोधूली नभ के आँगन में
तिमिर का बढ़ता हाहाकार
निष्ठुर पागल सा दीखता है
बेदर्द ये मतवाला संसार.      

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